Saturday, May 27, 2017

नारद जन्म कथा

नारद जन्म कथा
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पूर्व कल्प में नारद 'उपबर्हण' नाम के गंधर्व थे। उन्हें अपने रूप पर
अभिमान था। एक बार जब ब्रह्मा की सेवा में अप्सराएँ और गंधर्व गीत और
नृत्य से जगत्सृष्टा की आराधना कर रहे थे, उपबर्हण स्त्रियों के साथ
शृंगार भाव से वहाँ आया। उपबर्हण का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित
हो गये और उन्होंने उसे 'शूद्र योनि' में जन्म लेने का शाप दे दिया। शाप
के फलस्वरूप वह 'शूद्रा दासी' का पुत्र हुआ। नारद जी अपने पूर्वजन्म मे
वेदवादी ब्राह्मणों के यहाँ एक दासी पुत्र थे। इनका नाम हरिदास था, ये और
इनकी माता संतो की सेवा किया करते थे। एक बार इनके गाँव मे चतुर्मास में
कुछ संत आये। नारद जी को उनकी सेवा में नियुक्त कर दिया गया। ये निरंतर
संतों का सत्संग सुनते और भगवान की लीला कथाओं का श्रवण करते थे। सत्संग
और गुरु- कृपा से इनके अंदर भी भगवान से मिलने की चाह जागने लगी।

सेवा करने पर गुरुदेव कृपा करते हैं। इनके गुरुदेव बार- बार इनको निहारते
थे। गुरुदेव कहते - ये बच्चा बड़ा समझदार है। यह जीव जातिहीन है, पर
कर्म- हीन नही। गुरु जिस पर प्रेम की नज़र डालते है उसका कल्याण होता है।
ये संतो की झूठी पत्तले उठाते थे और उनका झूठन खा लेते थे। संतो का झूठन
ग्रहण करने से इनकी बुद्धि धीरे-धीरे शुद्ध होने लगी थी। एक दिन गुरु जी
ने इनसे कहा- हरिदास मैनें पत्तलो में महाप्रसाद रखा है उसे ग्रहण कर लो।
इन्होंने वह प्रसाद ग्रहण किया और इनके सारे पाप नष्ट हो गये। इनको भक्ति
का रंग लग गया। राधाकृष्ण का अनुभव हुआ। गुरुदेव ने नारद जी को वासुदेव
गायत्री का मंत्र दिया
ॐ नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि ।
प्रधुम्नायनिरूद्धाय नमः सङ्कर्षणाय च ।।

इन्होने चार माह गुरुदेव की बहुत सेवा की। अब गुरुदेव गाँव छोड़कर जाने
लगे। इन्होने भी साथ चलने की ज़िद की बोले-गुरु जी,आप मुझे साथ ले चलिए।
मुझे मत छोड़ो। मैं आपकी शरण में आया हूँ। मेरी उपेक्षा मत करो। गुरुदेव
ने विधाता का लेख पढ़ कर कहा कि तू अपनी माता का ऋणानुबंद्धि पुत्र है।
इस जन्म से तुम्हें उसका ऋण चुकाना चाहिए। इसलिए माता का त्याग नहीं करना
है। यदि तू माता को छोड़कर आयेगा तो तुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा।
तुम्हारी माता की आहें भजन मे विक्षेप करेंगी। तुम घर पर ही रहो।

नारद जी बोले - आपने तो कहा था की प्रभु भजन में जो विक्षेप करे उसका त्याग कर दो।
गुरुजी ने कहा - तू माँ का त्याग करे, ये मुझे अच्छा नहीं लगेगा। ठाकुर
जी सब जानते हैं की तुम्हारी माता तुम्हारे भजन में विघ्न करेगी तो ठाकुर
जी कोई लीला अवश्य करेंगे। सम्भव है ये तुम्हारी माता को उठा लेंगे अथवा
तुम्हारी माता की बुद्धि को भगवान सुधार देंगे। तुम घर पर ही रहकर इस
महामंत्र का जप करो। जप करने से प्रारब्ध भी बदल जाता है। हरिदास गुरुदेव
द्वारा दिये गये मंत्र का निरन्तर जप करते रहे । गुरुदेव ने वासुदेव
गायत्री मंत्र का बत्तीस लाख जप करने को कहा था। बत्तीस लाख जप होगा तो
विधाता का लेख भी मिटेगा। पाप का भी नाश होता है। नारद जी ने बारह वर्ष
तक सोलह अक्षरी महामंत्र का जप किया और निरन्तर माँ की भी सेवा करते रहे।
इसके बाद माता एक दिन गौशाला में गई| वहाँ उसको सर्प ने काट लिया। माता
ने शरीर त्याग दिया। नारद जी ने यही माना कि भगवान ने अनुग्रह किया है।
माता की देह का अग्नि-संस्कार किया। ये मातृ-ऋण से मुक्त हुये।

अब नारद जी ने सब कुछ त्याग दिया और भक्ति के लिये घर से निकल गये। लंबा
रास्ता तय करने के बाद जंगल में एक नदी में स्नान किया, आचमन किया और एक
पीपल के वृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये। नारद जी गुरु की आज्ञानुसार
निरन्तर जप करते रहे। नारद जी को बालकृष्ण के दर्शन की बड़ी लालसा थी इसी
तड़प के साथ ध्यान करते हुए एक दिन उन्हे सुन्दर नीला आकाश दीखा। फिर
प्रकाश से बालकृष्ण का स्वरूप प्रकट हुआ। इन्हें बालकृष्ण के मनोहर
स्वरूप की झाँकी हुई। श्रीकृष्ण ने कस्तूरी का तिलक लगाया था। वक्षस्थल
में कौस्तुभ-मणि की माला धारण की थी नाक में मोती था। आँखें प्रेम से भरी
थी। इनको ऐसा आनंद हुआ कि दौड़ता हुआ जाऊँ और श्रीकृष्ण के चरणों में
वन्दन करूँ। पर जैसे ही ये वन्दन करने गये तो श्रीकृष्ण अन्तर्ध्यान हो
गये। इनको बहुत तड़प हुई की श्रीकृष्ण अन्तर्ध्यान क्यों हो गये। तभी
आकाशवाणी हुई- कि इस जन्म में, तुम्हें अब मेरा दर्शन नहीं होगा। तेरे
प्रेम को, तेरी भक्ति को पुष्ट करने के लिये मैनें तुम्हें दर्शन दिया
है। परंतु तुझको अभी एक जन्म और लेना पड़ेगा। अभी तेरे मन में सूक्ष्म
वासना रह गई है। इसके बाद नारद जी गंगा किनारे रहकर निरन्तर जप करते रहे।
अंतकाल में राधाकृष्ण का चिंतन करते हुए इन्होने शरीर त्याग दिया। इसके
बाद हरिदास का जन्म ब्रह्माजी के यहाँ हुआ। इनका नाम नारद रखा गया।
पूर्वजन्म के कर्मो का फल इनको मिला कि इनका मन स्थिर था। संसार की ओर
कोई आकर्षण नहीं था। तभी से ये, भगवद् कृपा से बैकुण्ठादि और तीनो लोको
में बाहर-भीतर बिना रोक-टोक विचरण करते रहते हैं। इनका भगवद् भजन अखंड
रूप से चलता रहता है। एक दिन नारद जी गोलोक में गये, जहाँ सतत भगवान की
लीला चलती रहती है। इन्हें वहाँ राधा-कृष्ण के दर्शन हुए। ये राधा- कृष्ण
कीर्तन में तन्मय हो गये। प्रसन्न होकर राधाजी ने इनके लिये प्रभु से
प्रार्थना की कि नारद जी को प्रसाद दें। श्री कृष्ण ने प्रसाद स्वरूप
नारद जी को तम्बूरा भेंट किया। प्रभु ने कहा कृष्ण कीर्तन करते-करते जगत
में भ्रमण करो और मुझसे जुदा हुये जीवों को मेरे पास लाओ। इस तरह नारद जी
अपनी वीणा पर तानछेड़ कर भगवान की लीलाओं का गान करते रहते हैं और भगवान
से विमुख हुए जीवों को भगवान के सम्मुख करते हैं।

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