नारद जन्म कथा
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पूर्व कल्प में नारद 'उपबर्हण' नाम के गंधर्व थे। उन्हें अपने रूप पर
अभिमान था। एक बार जब ब्रह्मा की सेवा में अप्सराएँ और गंधर्व गीत और
नृत्य से जगत्सृष्टा की आराधना कर रहे थे, उपबर्हण स्त्रियों के साथ
शृंगार भाव से वहाँ आया। उपबर्हण का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित
हो गये और उन्होंने उसे 'शूद्र योनि' में जन्म लेने का शाप दे दिया। शाप
के फलस्वरूप वह 'शूद्रा दासी' का पुत्र हुआ। नारद जी अपने पूर्वजन्म मे
वेदवादी ब्राह्मणों के यहाँ एक दासी पुत्र थे। इनका नाम हरिदास था, ये और
इनकी माता संतो की सेवा किया करते थे। एक बार इनके गाँव मे चतुर्मास में
कुछ संत आये। नारद जी को उनकी सेवा में नियुक्त कर दिया गया। ये निरंतर
संतों का सत्संग सुनते और भगवान की लीला कथाओं का श्रवण करते थे। सत्संग
और गुरु- कृपा से इनके अंदर भी भगवान से मिलने की चाह जागने लगी।
सेवा करने पर गुरुदेव कृपा करते हैं। इनके गुरुदेव बार- बार इनको निहारते
थे। गुरुदेव कहते - ये बच्चा बड़ा समझदार है। यह जीव जातिहीन है, पर
कर्म- हीन नही। गुरु जिस पर प्रेम की नज़र डालते है उसका कल्याण होता है।
ये संतो की झूठी पत्तले उठाते थे और उनका झूठन खा लेते थे। संतो का झूठन
ग्रहण करने से इनकी बुद्धि धीरे-धीरे शुद्ध होने लगी थी। एक दिन गुरु जी
ने इनसे कहा- हरिदास मैनें पत्तलो में महाप्रसाद रखा है उसे ग्रहण कर लो।
इन्होंने वह प्रसाद ग्रहण किया और इनके सारे पाप नष्ट हो गये। इनको भक्ति
का रंग लग गया। राधाकृष्ण का अनुभव हुआ। गुरुदेव ने नारद जी को वासुदेव
गायत्री का मंत्र दिया
ॐ नमो भगवते तुभ्यं वासुदेवाय धीमहि ।
प्रधुम्नायनिरूद्धाय नमः सङ्कर्षणाय च ।।
इन्होने चार माह गुरुदेव की बहुत सेवा की। अब गुरुदेव गाँव छोड़कर जाने
लगे। इन्होने भी साथ चलने की ज़िद की बोले-गुरु जी,आप मुझे साथ ले चलिए।
मुझे मत छोड़ो। मैं आपकी शरण में आया हूँ। मेरी उपेक्षा मत करो। गुरुदेव
ने विधाता का लेख पढ़ कर कहा कि तू अपनी माता का ऋणानुबंद्धि पुत्र है।
इस जन्म से तुम्हें उसका ऋण चुकाना चाहिए। इसलिए माता का त्याग नहीं करना
है। यदि तू माता को छोड़कर आयेगा तो तुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा।
तुम्हारी माता की आहें भजन मे विक्षेप करेंगी। तुम घर पर ही रहो।
नारद जी बोले - आपने तो कहा था की प्रभु भजन में जो विक्षेप करे उसका त्याग कर दो।
गुरुजी ने कहा - तू माँ का त्याग करे, ये मुझे अच्छा नहीं लगेगा। ठाकुर
जी सब जानते हैं की तुम्हारी माता तुम्हारे भजन में विघ्न करेगी तो ठाकुर
जी कोई लीला अवश्य करेंगे। सम्भव है ये तुम्हारी माता को उठा लेंगे अथवा
तुम्हारी माता की बुद्धि को भगवान सुधार देंगे। तुम घर पर ही रहकर इस
महामंत्र का जप करो। जप करने से प्रारब्ध भी बदल जाता है। हरिदास गुरुदेव
द्वारा दिये गये मंत्र का निरन्तर जप करते रहे । गुरुदेव ने वासुदेव
गायत्री मंत्र का बत्तीस लाख जप करने को कहा था। बत्तीस लाख जप होगा तो
विधाता का लेख भी मिटेगा। पाप का भी नाश होता है। नारद जी ने बारह वर्ष
तक सोलह अक्षरी महामंत्र का जप किया और निरन्तर माँ की भी सेवा करते रहे।
इसके बाद माता एक दिन गौशाला में गई| वहाँ उसको सर्प ने काट लिया। माता
ने शरीर त्याग दिया। नारद जी ने यही माना कि भगवान ने अनुग्रह किया है।
माता की देह का अग्नि-संस्कार किया। ये मातृ-ऋण से मुक्त हुये।
अब नारद जी ने सब कुछ त्याग दिया और भक्ति के लिये घर से निकल गये। लंबा
रास्ता तय करने के बाद जंगल में एक नदी में स्नान किया, आचमन किया और एक
पीपल के वृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये। नारद जी गुरु की आज्ञानुसार
निरन्तर जप करते रहे। नारद जी को बालकृष्ण के दर्शन की बड़ी लालसा थी इसी
तड़प के साथ ध्यान करते हुए एक दिन उन्हे सुन्दर नीला आकाश दीखा। फिर
प्रकाश से बालकृष्ण का स्वरूप प्रकट हुआ। इन्हें बालकृष्ण के मनोहर
स्वरूप की झाँकी हुई। श्रीकृष्ण ने कस्तूरी का तिलक लगाया था। वक्षस्थल
में कौस्तुभ-मणि की माला धारण की थी नाक में मोती था। आँखें प्रेम से भरी
थी। इनको ऐसा आनंद हुआ कि दौड़ता हुआ जाऊँ और श्रीकृष्ण के चरणों में
वन्दन करूँ। पर जैसे ही ये वन्दन करने गये तो श्रीकृष्ण अन्तर्ध्यान हो
गये। इनको बहुत तड़प हुई की श्रीकृष्ण अन्तर्ध्यान क्यों हो गये। तभी
आकाशवाणी हुई- कि इस जन्म में, तुम्हें अब मेरा दर्शन नहीं होगा। तेरे
प्रेम को, तेरी भक्ति को पुष्ट करने के लिये मैनें तुम्हें दर्शन दिया
है। परंतु तुझको अभी एक जन्म और लेना पड़ेगा। अभी तेरे मन में सूक्ष्म
वासना रह गई है। इसके बाद नारद जी गंगा किनारे रहकर निरन्तर जप करते रहे।
अंतकाल में राधाकृष्ण का चिंतन करते हुए इन्होने शरीर त्याग दिया। इसके
बाद हरिदास का जन्म ब्रह्माजी के यहाँ हुआ। इनका नाम नारद रखा गया।
पूर्वजन्म के कर्मो का फल इनको मिला कि इनका मन स्थिर था। संसार की ओर
कोई आकर्षण नहीं था। तभी से ये, भगवद् कृपा से बैकुण्ठादि और तीनो लोको
में बाहर-भीतर बिना रोक-टोक विचरण करते रहते हैं। इनका भगवद् भजन अखंड
रूप से चलता रहता है। एक दिन नारद जी गोलोक में गये, जहाँ सतत भगवान की
लीला चलती रहती है। इन्हें वहाँ राधा-कृष्ण के दर्शन हुए। ये राधा- कृष्ण
कीर्तन में तन्मय हो गये। प्रसन्न होकर राधाजी ने इनके लिये प्रभु से
प्रार्थना की कि नारद जी को प्रसाद दें। श्री कृष्ण ने प्रसाद स्वरूप
नारद जी को तम्बूरा भेंट किया। प्रभु ने कहा कृष्ण कीर्तन करते-करते जगत
में भ्रमण करो और मुझसे जुदा हुये जीवों को मेरे पास लाओ। इस तरह नारद जी
अपनी वीणा पर तानछेड़ कर भगवान की लीलाओं का गान करते रहते हैं और भगवान
से विमुख हुए जीवों को भगवान के सम्मुख करते हैं।
Uttarakhand Marriage Bureau
Garhwali Rishte, Kumauni Rishte. Online Astrology Work.
Saturday, May 27, 2017
Friday, May 26, 2017
सीता माता के जन्म का रहस्य।
सीता माता के जन्म का रहस्य।
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सीता रावण और मंदोदरी की बेटी थी इसके पीछे बहुत बड़ा कारण थी वेदवती .
सीता वेदवती का पुनर्जन्म जन्म थी .वेदवती एक बहुत सुंदर, सुशिल धार्मिक
कन्या थी जो कि भगवान विष्णु की उपासक थी और उन्ही से विवाह करना चाहती
थी । अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए वेदवती ने कठिन तपस्या की। उसने
सांसारिक जीवन छोड़ स्वयं को तपस्या में लीन कर दिया था। वेदवती उपवन में
कुटिया बनाकर रहने लगी। एक दिन वेदवती उपवन में तपस्या कर रही थी। तब ही
रावण वहां से निकला और वेदवती के स्वरूप को देख उस पर मोहित हो गया और
उसने वेदवती के साथ दुर्व्यवहार करना चाहा, जिस कारण वेदवती ने हवन कुंड
में कूदकर आत्मदाह कर लिया और वेदवती ने ही मरने से पूर्व रावण को श्राप
दिया कि वो खुद रावण की पुत्री के रूप में जन्म लेगी और रावण की मृत्यु
का कारण बनेगी। कुछ समय बाद दण्डकारण्य मे गृत्स्मद नामक ब्राह्मण
,लक्ष्मी को पुत्री रूप मे पाने की कामना से, प्रतिदिन एक कलश मे कुश के
अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूँदें डालता था । एक दिन उसकी
अनुपस्थिति मे रावण वहाँ पहुँचा और ऋषियों को तेजहत करने के लिये उन्हें
घायल कर उनका रक्त उसी कलश मे एकत्र कर लंका ले गया।कलश को उसने मंदोदरी
के संरक्षण मे दे दिया-यह कह कर कि यह तीक्ष्ण विष है, सावधानी से रखे।
कुछ समय पश्चात् रावण विहार करने सह्याद्रि पर्वत पर चला गया।रावण की
उपेक्षा से खिन्न होकर मन्दोदरी ने मृत्यु के वरण हेतु उस कलश का पदार्थ
पी लिया।लक्ष्मी के आधारभूत दूध से मिश्रित होने के कारण उसका प्रभाव
पडा। मन्दोदरी मे गर्भ के लक्षण प्रकट होने लगे। मंदोदरी को पुत्री
प्राप्त हुई। अनिष्ठ की आशंकाओं से भीत मंदोदरी ने उसे जन्म लेते ही सागर
में फेंक दिया। सागर में डूबती वह कन्या सागर की देवी वरुणी को मिली और
वरुणी ने उसे धरती देवी को सौंप दिया। और धरती देवी ने उस कन्या को राजा
सीरध्वज जनक और माता सुनैना को सौंप दिया, जिसके बाद वह कन्या सीता के
रूप में जानी गई और बाद में इसी सीता के अपहरण के कारण भगवान राम ने रावण
का वध किया। अद्भुत रामायण में उल्लेख है कि 'रावण कहता है कि जब मैं
भूलवश अपनी पुत्री से प्रणय की इच्छा करूं तब वही मेरी मृत्यु का कारण
बने।'
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सीता रावण और मंदोदरी की बेटी थी इसके पीछे बहुत बड़ा कारण थी वेदवती .
सीता वेदवती का पुनर्जन्म जन्म थी .वेदवती एक बहुत सुंदर, सुशिल धार्मिक
कन्या थी जो कि भगवान विष्णु की उपासक थी और उन्ही से विवाह करना चाहती
थी । अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए वेदवती ने कठिन तपस्या की। उसने
सांसारिक जीवन छोड़ स्वयं को तपस्या में लीन कर दिया था। वेदवती उपवन में
कुटिया बनाकर रहने लगी। एक दिन वेदवती उपवन में तपस्या कर रही थी। तब ही
रावण वहां से निकला और वेदवती के स्वरूप को देख उस पर मोहित हो गया और
उसने वेदवती के साथ दुर्व्यवहार करना चाहा, जिस कारण वेदवती ने हवन कुंड
में कूदकर आत्मदाह कर लिया और वेदवती ने ही मरने से पूर्व रावण को श्राप
दिया कि वो खुद रावण की पुत्री के रूप में जन्म लेगी और रावण की मृत्यु
का कारण बनेगी। कुछ समय बाद दण्डकारण्य मे गृत्स्मद नामक ब्राह्मण
,लक्ष्मी को पुत्री रूप मे पाने की कामना से, प्रतिदिन एक कलश मे कुश के
अग्र भाग से मंत्रोच्चारण के साथ दूध की बूँदें डालता था । एक दिन उसकी
अनुपस्थिति मे रावण वहाँ पहुँचा और ऋषियों को तेजहत करने के लिये उन्हें
घायल कर उनका रक्त उसी कलश मे एकत्र कर लंका ले गया।कलश को उसने मंदोदरी
के संरक्षण मे दे दिया-यह कह कर कि यह तीक्ष्ण विष है, सावधानी से रखे।
कुछ समय पश्चात् रावण विहार करने सह्याद्रि पर्वत पर चला गया।रावण की
उपेक्षा से खिन्न होकर मन्दोदरी ने मृत्यु के वरण हेतु उस कलश का पदार्थ
पी लिया।लक्ष्मी के आधारभूत दूध से मिश्रित होने के कारण उसका प्रभाव
पडा। मन्दोदरी मे गर्भ के लक्षण प्रकट होने लगे। मंदोदरी को पुत्री
प्राप्त हुई। अनिष्ठ की आशंकाओं से भीत मंदोदरी ने उसे जन्म लेते ही सागर
में फेंक दिया। सागर में डूबती वह कन्या सागर की देवी वरुणी को मिली और
वरुणी ने उसे धरती देवी को सौंप दिया। और धरती देवी ने उस कन्या को राजा
सीरध्वज जनक और माता सुनैना को सौंप दिया, जिसके बाद वह कन्या सीता के
रूप में जानी गई और बाद में इसी सीता के अपहरण के कारण भगवान राम ने रावण
का वध किया। अद्भुत रामायण में उल्लेख है कि 'रावण कहता है कि जब मैं
भूलवश अपनी पुत्री से प्रणय की इच्छा करूं तब वही मेरी मृत्यु का कारण
बने।'
सीरध्वज जनक
मिथिला प्रांत में जनक नाम का एक अत्यंत प्राचीन तथा प्रसिद्ध राजवंश था
जिसके मूल पुरुष कोई जनक थे। जनक के पुत्र उदावयु पौत्र नंदिवर्धन् और कई
पीढ़ी पश्चात् ह्रस्वरोमा हुए। ह्रस्वरोमा के दो पुत्रसीरध्वज तथा
कुशध्वज हुए। यही सीरध्वज जनक सीरध्वज के नाम से प्रसिद्ध हैं, क्योंकि
जनक नाम से अनेक और व्यक्ति हुए हैं। सीरध्वज की दो कन्याएँ सीता तथा
उर्मिला हुईं जिनका विवाह राम तथा लक्ष्मण से हुआ। कुशध्वज की कन्याएँ
मांडवी तथा श्रुतिकीर्ति हुईं जिनके व्याह भरत तथा शत्रुघ्न से हुए।
जिसके मूल पुरुष कोई जनक थे। जनक के पुत्र उदावयु पौत्र नंदिवर्धन् और कई
पीढ़ी पश्चात् ह्रस्वरोमा हुए। ह्रस्वरोमा के दो पुत्रसीरध्वज तथा
कुशध्वज हुए। यही सीरध्वज जनक सीरध्वज के नाम से प्रसिद्ध हैं, क्योंकि
जनक नाम से अनेक और व्यक्ति हुए हैं। सीरध्वज की दो कन्याएँ सीता तथा
उर्मिला हुईं जिनका विवाह राम तथा लक्ष्मण से हुआ। कुशध्वज की कन्याएँ
मांडवी तथा श्रुतिकीर्ति हुईं जिनके व्याह भरत तथा शत्रुघ्न से हुए।
Friday, January 13, 2017
मकर संक्रान्ति
मकर संक्रान्ति हिन्दुओं का प्रमुख पर्व है। जब सूर्य मकर राशि पर आता है
तभी इस पर्व को मनाया जाता है। मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की
उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसलिये इस पर्व को कहीं-कहीं
उत्तरायणी भी कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायण को देवताओं की
रात्रि अर्थात् नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को देवताओं का दिन
अर्थात् सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, दान,
स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। ऐसी
धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता
है। इस दिन शुद्ध घी एवं कम्बल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है। जैसा
कि निम्न श्लोक से स्पष्ठ होता है-
माघे मासे महादेव: यो दास्यति घृतकम्बलम।
स भुक्त्वा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति॥
मकर संक्रान्ति के अवसर पर गंगास्नान एवं गंगातट पर दान को अत्यन्त शुभ
माना गया है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिये
मकर संक्रान्ति का ही चयन किया था। मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगाजी
भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में जाकर
मिली थीं।
तभी इस पर्व को मनाया जाता है। मकर संक्रान्ति के दिन से ही सूर्य की
उत्तरायण गति भी प्रारम्भ होती है। इसलिये इस पर्व को कहीं-कहीं
उत्तरायणी भी कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायण को देवताओं की
रात्रि अर्थात् नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को देवताओं का दिन
अर्थात् सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है। इसीलिए इस दिन जप, तप, दान,
स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है। ऐसी
धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता
है। इस दिन शुद्ध घी एवं कम्बल का दान मोक्ष की प्राप्ति करवाता है। जैसा
कि निम्न श्लोक से स्पष्ठ होता है-
माघे मासे महादेव: यो दास्यति घृतकम्बलम।
स भुक्त्वा सकलान भोगान अन्ते मोक्षं प्राप्यति॥
मकर संक्रान्ति के अवसर पर गंगास्नान एवं गंगातट पर दान को अत्यन्त शुभ
माना गया है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिये
मकर संक्रान्ति का ही चयन किया था। मकर संक्रान्ति के दिन ही गंगाजी
भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होती हुई सागर में जाकर
मिली थीं।
Saturday, January 7, 2017
लघु रुद्र पूजा
लघु रुद्र पूजा
भगवान शिव का एक नाम रुद्र भी है। रुद्र शब्द की महिमा का गुणगान धार्मिक
ग्रंथों में मिलता है। यजुर्वेद में कई बार इस शब्द का उल्लेख हुआ है।
रुद्राष्टाध्यायी को तो यजुर्वेद का अंग ही माना जाता है। रुद्र अर्थात
रुत् और रुत् का अर्थ होता है दुखों को नष्ट करने वाला यानि जो दुखों को
नष्ट करे वही रुद्र है अर्थात भगवान शिव क्योंकि वहीं समस्त जगत के दुखों
का नाश कर जगत का कल्याण करते हैं। आइये आपको बताते हैं लघु रुद्र पूजा
के बारे में कि क्या होती है लघु रुद्र पूजा, यह कैसे की जाती है और इस
लघु रुद्र पूजा के करने से क्या लाभ मिलता है। क्या होती है लघु रुद्र
पूजा रुद्राष्टाध्यायी को यजुर्वेद का अंग माना जाता है। वैसे तो भगवान
शिव अर्थात रुद्र की महिमा का गान करने वाले इस ग्रंथ में दस अध्याय हैं
लेकिन चूंकि इसके आठ अध्यायों में भगवान शिव की महिमा व उनकी कृपा शक्ति
का वर्णन किया गया है। इसलिये इसका नाम रुद्राष्टाध्यायी ही रखा गया है।
शेष दो अध्याय को शांत्यधाय और स्वस्ति प्रार्थनाध्याय के नाम से जाना
जाता है। रुद्राभिषेक करते हुए इन सम्पूर्ण 10 अध्यायों का पाठ रूपक या
षडंग पाठ कहा जाता है। वहीं यदि षडंग पाठ में पांचवें और आठवें अध्याय के
नमक चमक पाठ विधि यानि ग्यारह पुनरावृति पाठ को एकादशिनि रुद्री पाठ कहते
हैं। पांचवें अध्याय में "नमः" शब्द अधिक प्रयोग होने से इस अध्याय का
नाम नमक और आठवें अध्याय में "चमे" शब्द अधिक प्रयोग होने से इस अध्याय
का नाम चमक प्रचलित हुआ। दोनों पांचवें और आठवें अध्याय पनरावृति पाठ नमक
चमक पाठ के नाम से प्रसिद्ध हैं। एकादशिनि रुद्री के ग्यारह आवृति पाठ को
लघु रूद्र कहा जाता है। वहीं लघु रुद्र के ग्यारह आवृति पाठ को महारुद्र
तो महारुद्र के ग्यारह आवृति पाठ को अतिरुद्र कहा जाता है। रुद्र पूजा के
इन्हीं रुपों को कहता है यह श्लोक-
रुद्रा: पञ्चविधाः प्रोक्ता देशिकैरुत्तरोतरं ।
सांगस्तवाद्यो रूपकाख्य: सशीर्षो रूद्र उच्च्यते ।।
एकादशगुणैस्तद्वद् रुद्रौ संज्ञो द्वितीयकः ।
एकदशभिरेता भिस्तृतीयो लघु रुद्रकः।।
क्यों होती है लघु रुद्र पूजा
"रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र:"
यानि भगवान शिव सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं। सबसे बड़ा और अहम कारण
रुद्र पूजा का यही है कि इससे भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है।
रुद्रार्चन से मनुष्य के पातक एवं महापातक कर्म नष्ट होकर उसमें शिवत्व
उत्पन्न होता है और भगवान शिव के आशीर्वाद से साधक के सभी मनोरथ पूर्ण
होते हैं। कहा भी जाता है कि सदाशिव रुद्र की पूजा से स्वत: ही सभी
देवी-देवताओं की पूजा हो जाती है। रुद्रहृद्योपनिषद में कहा गया है कि
'सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:' अर्थात् - सभी देवताओं की
आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं।
पूजा विधि
इसमें में रुद्राष्टाध्यायी के एकादशिनि रुद्री के ग्यारह आवृति पाठ किया
जाता है। इसे ही लघु रुद्र कहा जाता है। यह पंच्यामृत से की जाने वाली
पूजा है। इस पूजा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रभावशाली मंत्रो और
शास्त्रोक्त विधि से विद्वान ब्राह्मण द्वारा पूजा को संपन्न करवाया जाता
है। इस पूजा से जीवन में आने वाले संकटो एवं नकारात्मक ऊर्जा से छुटकारा
मिलता है।
भगवान शिव का एक नाम रुद्र भी है। रुद्र शब्द की महिमा का गुणगान धार्मिक
ग्रंथों में मिलता है। यजुर्वेद में कई बार इस शब्द का उल्लेख हुआ है।
रुद्राष्टाध्यायी को तो यजुर्वेद का अंग ही माना जाता है। रुद्र अर्थात
रुत् और रुत् का अर्थ होता है दुखों को नष्ट करने वाला यानि जो दुखों को
नष्ट करे वही रुद्र है अर्थात भगवान शिव क्योंकि वहीं समस्त जगत के दुखों
का नाश कर जगत का कल्याण करते हैं। आइये आपको बताते हैं लघु रुद्र पूजा
के बारे में कि क्या होती है लघु रुद्र पूजा, यह कैसे की जाती है और इस
लघु रुद्र पूजा के करने से क्या लाभ मिलता है। क्या होती है लघु रुद्र
पूजा रुद्राष्टाध्यायी को यजुर्वेद का अंग माना जाता है। वैसे तो भगवान
शिव अर्थात रुद्र की महिमा का गान करने वाले इस ग्रंथ में दस अध्याय हैं
लेकिन चूंकि इसके आठ अध्यायों में भगवान शिव की महिमा व उनकी कृपा शक्ति
का वर्णन किया गया है। इसलिये इसका नाम रुद्राष्टाध्यायी ही रखा गया है।
शेष दो अध्याय को शांत्यधाय और स्वस्ति प्रार्थनाध्याय के नाम से जाना
जाता है। रुद्राभिषेक करते हुए इन सम्पूर्ण 10 अध्यायों का पाठ रूपक या
षडंग पाठ कहा जाता है। वहीं यदि षडंग पाठ में पांचवें और आठवें अध्याय के
नमक चमक पाठ विधि यानि ग्यारह पुनरावृति पाठ को एकादशिनि रुद्री पाठ कहते
हैं। पांचवें अध्याय में "नमः" शब्द अधिक प्रयोग होने से इस अध्याय का
नाम नमक और आठवें अध्याय में "चमे" शब्द अधिक प्रयोग होने से इस अध्याय
का नाम चमक प्रचलित हुआ। दोनों पांचवें और आठवें अध्याय पनरावृति पाठ नमक
चमक पाठ के नाम से प्रसिद्ध हैं। एकादशिनि रुद्री के ग्यारह आवृति पाठ को
लघु रूद्र कहा जाता है। वहीं लघु रुद्र के ग्यारह आवृति पाठ को महारुद्र
तो महारुद्र के ग्यारह आवृति पाठ को अतिरुद्र कहा जाता है। रुद्र पूजा के
इन्हीं रुपों को कहता है यह श्लोक-
रुद्रा: पञ्चविधाः प्रोक्ता देशिकैरुत्तरोतरं ।
सांगस्तवाद्यो रूपकाख्य: सशीर्षो रूद्र उच्च्यते ।।
एकादशगुणैस्तद्वद् रुद्रौ संज्ञो द्वितीयकः ।
एकदशभिरेता भिस्तृतीयो लघु रुद्रकः।।
क्यों होती है लघु रुद्र पूजा
"रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र:"
यानि भगवान शिव सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं। सबसे बड़ा और अहम कारण
रुद्र पूजा का यही है कि इससे भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है।
रुद्रार्चन से मनुष्य के पातक एवं महापातक कर्म नष्ट होकर उसमें शिवत्व
उत्पन्न होता है और भगवान शिव के आशीर्वाद से साधक के सभी मनोरथ पूर्ण
होते हैं। कहा भी जाता है कि सदाशिव रुद्र की पूजा से स्वत: ही सभी
देवी-देवताओं की पूजा हो जाती है। रुद्रहृद्योपनिषद में कहा गया है कि
'सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:' अर्थात् - सभी देवताओं की
आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की आत्मा हैं।
पूजा विधि
इसमें में रुद्राष्टाध्यायी के एकादशिनि रुद्री के ग्यारह आवृति पाठ किया
जाता है। इसे ही लघु रुद्र कहा जाता है। यह पंच्यामृत से की जाने वाली
पूजा है। इस पूजा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रभावशाली मंत्रो और
शास्त्रोक्त विधि से विद्वान ब्राह्मण द्वारा पूजा को संपन्न करवाया जाता
है। इस पूजा से जीवन में आने वाले संकटो एवं नकारात्मक ऊर्जा से छुटकारा
मिलता है।
Saturday, October 1, 2016
Thursday, September 1, 2016
सूर्य ग्रहण
आज 1 सितम्बर 2016 गुरुवार को भाद्रपद माह कृष्णपक्ष की अमावस्या को कंकाणा कृति सूर्य ग्रहण है। भारतीय समयानुसार अमावस्या को दोपहर 12 बजकर 49 मिनट से सूर्यग्रहण शुरू हो गया है, जो सायं 4 बजकर 24 मिनट तक रहेगा। परन्तु यह ग्रहण भारत में नहीं दिखाई देगा। भारत में सूर्यग्रहण नहीं दिखाई देगा ओर ना ही इसका असर भारत के किसी भी हिस्से पर पड़ेगा। सूर्यग्रहण मुख्य रूप से अफ्रीकी देशों में देखा जा सकेगा। शास्त्रानुसार इस ग्रहण का सूतक भारत में मान्य नहीं, क्योंकि सूतक वहीं माना जाता है, जहां ग्रहण दिखाई देता है।
Thursday, August 25, 2016
Wednesday, August 17, 2016
Saturday, July 9, 2016
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